यूं तो मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अपने साढ़े चार महीने के कार्यकाल में 500 से अधिक फैसले ले चुके हैं पर ‘देवस्थानम बोर्ड’ पर फैसला लेना उनके लिए आसान काम नहीं था। तमाम वजहों से यह मुद्दा धामी सरकार के लिए पेचीदा बना हुआ था। एक तो अपनी ही पार्टी की पूर्व सरकार के फैसले पर उन्हें पुनर्निर्णय करना था। दूसरा, यह निर्णय इतने सलीके से लिया जाना था जिससे पार्टी पर उसका नकारात्मक प्रभाव ना पड़े और नाराज वर्ग भी संतुष्ट हो जाए। धामी अपने व्यक्तित्व के अनुरूप सभी पक्षों से सहजता से मिले, सरलता से उनको सुना और फिर उन्होंने सूझबूझ के साथ कदम आगे बढ़ाए। अंतत: युवा नेतृत्व ने जिस बुद्धिमत्ता के साथ निर्णय लिया उसकी चौतरफा न केवल चर्चा है बल्कि प्रशंसा भी हो रही है। यह फैसला उनकी सियासी परिपक्वता और दूरदर्शिता को भी दर्शाता है।
देवस्थानम बोर्ड का गठन जनवरी 2020 में तब के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने किया था। बोर्ड के गठन के जरिए 51 मंदिरों का नियंत्रण राज्य सरकार के पास आ गया था, जिनमें केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री चार धामों मंदिर भी शामिल थे। तब से ही तीर्थ-पुरोहित, हक-हकूकधारी और मंदिरों से जुड़ा हर पक्ष इस फैसले को वापस लेने की मांग पर अड़ा था। जुलाई 2021 में मुख्यमंत्री पद से त्रिवेन्द्र सिंह रावत की अचानक विदाई में देवस्थानम बोर्ड के गठन को भी एक कारण माना गया। उनके बाद तीरथ सिंह रावत को प्रदेश की कमान सौंपी गई तो उन्होंने आश्वासन दिया कि इस मामले में पुर्नर्विचार किया जाएगा। सियासी परिस्थितियां बदलीं और इसी साल जुलाई में पुष्कर सिंह धामी को उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनाया गया। उन्होंने तीर्थ-पुरोहितों की मांग पर एक कमेटी का गठन किया और उसकी रिपोर्ट के आधार पर फैसला लेने का टाइम बाउण्ड वादा किया। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो सीएम धामी ने फिर अपने सहयोगी मंत्रियों की एक कमेटी (पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज की अगुवाई में) गठित कर रिपोर्ट का अध्ययन करने और उस पर अपना सुझाव देने को कहा। बीते सोमवार को मंत्रियों की कमेटी ने अपनी रिपोर्ट संस्तुति समेत मुख्यमंत्री को सौंपी। धामी ने बिना कोई देर किए 30 नवंबर की सुबह देवस्थानम बोर्ड को भंग करने और इस एक्ट को वापस लेने का फैसला सुना दिया।
दरअसल, देवस्थानम बोर्ड छोटा मुद्दा नहीं था। सनातनी संस्कृति और परम्पराओं से जुड़े होने के कारण यह बेहद संवेदनशील बन गया था। खासतौर से भाजपा के लिए जो खुद को सनातन संस्कृति और परम्पराओं का संवाहक मानती है। मामले को इसलिए भी व्यापकता मिली क्योंकि उत्तराखण्ड में स्थित चारधामों से देश और दुनिया के करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। देवस्थानम बोर्ड के गठित होते ही श्रृद्धा के केन्द्र बदरीनाथ और केदारनाथ जैसे मंदिरों की देखभाल, रखरखाव और उनकी व्यवस्थाओं के प्रबंधन से जुड़ी सदियों पुरानी परम्पराओं को बदलने के औचित्य पर चर्चा शुरू हो गई थी। एक पक्ष देवस्थानम बोर्ड की वकालत तो दूसरा इसके विरोध में खड़ा हो गया। मामला सिर्फ सोशल मीडिया में बहस तक सीमित नहीं रहा बल्कि हाईकोर्ट से होते हुए देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। यही एकमात्र ऐसा मुद्दा था जिसे सुलझाने में धामी को अपनी सियासी परिपक्वता साबित करनी थी। चूंकि देवथानम बोर्ड का गठन भाजपा सरकार ने किया था लिहाजा दलगत मजबूरी के चलते धामी इसे एक झटके में वापस नहीं ले सकते थे, वरना इसके दुष्प्रभाव सामने आ जाते। बहुत ही समझदारी के साथ धामी ने स्वच्छ छवि के भाजपा नेता श्री मनोहर कांत ध्यानी के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई। कमेटी ने चारधाम के तीर्थ पुरोहितों, विद्वान पण्डितों, हक-हकूकधारियों और
2021-12-01